रविवार, 21 मार्च 2010

बेचने तो निकले हो खरीदेगा कौन?


छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता इन दिनों विषम स्थिति में है। सरकारी विज्ञापनों के लालच में खबरों से समझौता या सेल्फ सेंशरशीप चल रहा है। बड़े अखबार न तो खोजी पत्रकारिता को लगभग तिलांजलि ही दे दी है और खबरों पर मालिक से लेकर संपादक की निगाहें तेज हो गई है।
ऐसे में वे पत्रकार जो इस पेशे को मिशन के रुप में लेते हैं उनके लिए खबरें बनाना मुश्किल हो गया है इसलिए कुछ पत्रकारों को लगा कि हम सब मिलकर खबरें बेचने का काम करते हैं। इसी कड़ी में मीडिया-हाऊस बनाया गया है। शहर के प्रतिष्ठित अखबारों में काम कर चुके अहफाज रशीद, नवीन शर्मा और मधुसूदन सुनीता गुप्ता सहित कुछ और लोगों ने मीडिया हाउस बना लिया है। इकना कहना है कि वे पत्रकारिता को नया आयाम देंगे और प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए खबरें बनाएंगे। इन्होंने नवरात्रि के प्रथम दिवस पर इसे लांच भी कर दिया लेकिन इस सवाल का जवाब शायद इनके पास भी नहीं है कि खबरें यदि बनाई गई तो इसे खरीदेगा कौन?
दरअसल यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं कि इन दिनों खबरों से यादा मार्केटिंग और विज्ञापन को महत्व दिया जा रहा है। अखबार ऐसी खबरों से अटा पड़ा रहता है जो या तो सूचनात्मक हो या फिर जिसके माध्यम से विज्ञापन बटोरे जा सकते हैं। ऐसे में मीडिया हाउस को लेकर सवाल उठाना स्वाभाविक है। अखबार हो या प्रिंट मीडिया उन्हें अपने मतलब की खबरें चाहिए और मीडिया हाउस सिर्फ उनकी मतलब पर काम करेगा तो पत्रकारिता को नया आयाम देने के सपने का क्या होगा तब भला नौकरी क्या बुरी होगी।
और अंत में....
मीडिया हाउस को जिस ताम-झाम के साथ लांच किया गया उसे लेकर लोग यह कहने लगे हैं कि पत्रकारिता के चंडाल चौकड़ी में चंडाल का नाम बताया जाए और वह टिक गया तो हाउस बन जाएगा।

घोटाले में नाम कमाओं,बजट में हिस्सा बढ़ाओं


यह चतुर नौकरशाही है या फिर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का विरोधियों को चुप करने की रणनीति। लेकिन प्रदेश के जिस दमदार मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के विभागों में करोड़ों-अरबों रुपए के घोटाले की कहानी सामने आ रही है उसी बृजमोहन अग्रवाल के विभागों को प्रदेश के कुल बजट का 20 फीसदी हिस्सा दिए जाने को लेकर जनसामान्य में कई तरह की चर्चा है।
वैसे तो राय बनने के बाद से ही पीडब्ल्यूडी, खनिज, पंचायत, उर्जा, स्वास्थ्य, सिंचाई विभाग को काफी महत्वपूर्ण माना जाता रहा है और भाजपा शासनकाल में तो यहां हुए घपलों को लेकर खूब हल्ला मचा। बताया जाता है कि पर्यटन और संस्कृति विभाग में हुए काले कारनामें ने इस विभाग को भी चर्चा में ला दिया। इकलौता यही विभाग है जहां प्रचार प्रसार के नाम पर जमकर बंदरबांट हुए और यहां बैठे अफसरों ने करोड़ो कमाए। राय का ताजा बजट करीबन साढ़े तेईस हजार करोड़ है और इनमें से एक बडा हिस्सा पीडब्ल्यूडी, शिक्षा, पर्यटन और संस्कृति के लिए जारी किया गया है। यानी जिन विभागों को बृजमोहन अग्रवाल संभाल रहे हैं उन्हें साढ़े पांच हजार करोड़ आबंटित किया गया है।
भाजपा सूत्रों के मुताबिक यह उन नौकरशाहों की करतूत है जो अपनी जेबें गरम करना चाहते हैं इसलिए ऐसे विभागों में यादा बजट दिया गया जहां खाने की छूट मिल सके। जबकि एक अन्य सूत्रों का कहना है कि यह डॉ. रमन सिंह की रणनीति का हिस्सा है ताकि बृजमोहन अग्रवाल नाराज न हो और उसकी तरफ नजर न उठाये। मामला जो भी हो लेकिन आम लोगों में यह प्रतिक्रिया खुले आम सुनाई पड़ रही है कि जो सबसे यादा भ्रष्टाचार करेगा उसे ही बजट में सर्वाधिक आबंटन दिया जाएगा। छत्तीसगढ में जिस पैमाने पर पीडब्ल्यूडी में भ्रष्टाचार चल रहा है वह आश्चर्यजनक है सड़कों का हाल तो बदतर है ही भवनों के निर्माण में भी जमकर धांधली की जा रही है। जबकि पर्यटन में मोटल निर्माण में बाउंड्री निर्माण और घास लगाने के नाम पर जबरदस्त घोटाले हुए हैं। संस्कृति विभाग ने तो स्थानीय कलाकारों की उपेक्षा कर बाहर के कलाकारों को बुलाने में जमकर दलाली की है।
बहरहाल बजट में एक ही मंत्री को 20 फीसदी आबंटन को लेकर कई तरह की चर्चा है ऐसे में आम लोगों में डॉ. रमन सिंह की छवि को लेकर चर्चा स्वाभाविक है।

रमन बने असरदार,क्योंकि वे हैं लाचार|जोगी की दमदारी पर इंडिया टुडे कायल





यह तो देश की राजनैतिक परिस्थितियां ही है कि यहां फूलनदेवी जैसी डकैत सांसद के दरवाजे पर पहुंच जाती है और अंधेरगर्दी मचाने वाले देश के सबसे बड़े राय के मुख्यमंत्री बन जाते है। छत्तीसगढ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी तमाम घपलों-घोटालों के बाद भी छत्तीसगढ में सबसे असरदार माने जाते हैं तो इसकी वजह कांग्रेस में बिखराव के अलावा पैसों की भूख है जिसके आगे तमाम राजनेता नतमस्तक है।
इंडिया टुडे के ताजा सर्वे रिपोर्ट के आधार पर रमन सिंह इसलिए छत्तीसगढ क़े सबसे असरदार व्यक्ति है क्योंकि उन्होंने विरोधियों की हवा निकाल दी और अजीत जोगी को छोड़ अन्य कांग्रेसियों में चुनौती देने का साहस नहीं है। ऐसे में अजीत जोगी की दमदारी को इंडिया टुडे ने भी माना है भले ही कांग्रेसी न माने। सर्वे रिपोर्ट को लेकर डॉ. रमन सिंह के असरदार के पक्ष में जो बाते कही गई है उसमें दो रुपया किलो चावल का भी जिक्र है जो डॉक्टर रमन सिंह की लोकप्रियता का संवाहक बताया गया है।
हम यहां सर्वे के आधार को चुनौती नहीं दे रहे हैं बल्कि असरदार की परिभाषा को लेकर सवाल उठा रहे हैं। राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में डॉ. रमन सिंह असरदार इसलिए भी हैं क्योंकि वे प्रदेश के मुख्यमंत्री है। दरअसल असरदार की परिभाषाएं अब बदल गई है। नरेन्द्र मोदी क्यों असरदार है और फूलनदेवी क्या बगैर असरदार के चुनाव जीत सकती है। यूपी-बिहार में तो अपराधियों की जीत ही उनके असरदार होने का ईशारा करती है।
छत्तीसगढ में राजनैतिक परिस्थिति भले ही भाजपा के अनुकूल न हो लेकिन कांग्रेस के बिखराव ने उन्हें कुर्सी पर तो बिठा ही दिया है। रोज नए-नए घोटाले की कहानी बाहर आ रही है और मंत्रियों पर खुलेआम कमीशन लेने के आरोप लग रहे हैं। आरोप तो यहां तक है कि मुख्यमंत्री का न प्रशासन पर पकड़ है न शासन पर पकड़ है। मंत्री से लेकर अधिकारी अपनी मनमानी कर रहे हैं और विधानसभा तक को झूठी जानकारी दी जाती है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ में शासन-प्रशासन का क्या हाल है रही बात डॉ. रमन सिंह को चुनौती का तो वह तो कहीं नहीं दिखलाई पड़ता। इसकी वजह उनकी प्रशासनिक छवि है जो अधिकारियों और मंत्रियों को मनमानी करने की छूट देता है।
यह सर्वमान्य सिध्दांत है कि आप जब किसी के गलत कार्यों का विरोध नहीं करेंगे तो आपका कोई विरोध क्यों करेगा हालांकि राजनीति में महत्वाकांक्षा भी मायने रखता है तो बृजमोहन अग्रवाल को छोड़ रमन सिंह के लिए कहीं कोई दिक्कत नहीं है और डॉ. रमन सिंह ये बात जानते हैं इसलिए उन्होंने प्रदेश के कुल बजट का 20 फीसदी हिस्सा बृजमोहन अग्रवाल के पाले में कर दिया है ताकि उनका ध्यान कुर्सी की बजाय पैसे पर लगा रहे। बहरहाल सर्वे रिपोर्ट ने कांग्रेसियों के कान खड़े कर दिए है और देखना है कि इंडिया टुडे के इस सर्वे रिपोर्ट का कांग्रेस के अंदरूनी राजनीति में क्या असर डालता है।

मांढर कालेज में मनमानी,अफसरों की मेहरबानी


ठाकुर होने का फायदा उठाकर मांढर स्थित महाविद्यालय के संचालक अशोक सिंह ने कॉलेज में हुए घपलों की लीपापोती शुरु कर दी है। कहा जाता है कि उनके प्रभाव में आकर आदिम जाति विभाग और मंत्रालय में बैठे अफसरों ने उन्हें क्लीन चीट देने की योजना तक बना ली है।
मांढर कॉलेज में हो रहे घपलों पर विस्तार से प्रकाश डाला था और सूचना के अधिकार के तहत मिले सबूतों से स्पष्ट है कि यहां कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। आरक्षित बच्चों की फीस जिस तरह से कॉलेज संचालकों द्वारा हड़पा जा रहा है वह आश्चर्यजनक है। हालात यह है कि इस मामले में शिकायकर्ताओं को जांच अधिकारियों द्वारा सेंटिंग कर लेने के लिए प्रेरित किया जाता है इसी से समझा जा सकता है कि कॉलेज प्रबंधकों ने किस पैमाने पर यहां गोलमाल किया है।
बताया जाता है कि कॉलेज में हुए घपलेबाजी से प्राचार्य को अलग रखा गया है और इसकी उच्च स्तरीय जांच हुई तो यह भी सामने आ सकता है कि किस तरह से प्राचार्य के नाम पर दूसरे लोगों ने हस्ताक्षर कर राशि हड़प की है। प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2006-07 शिक्षा सत्र में ध्रुवकुमार वर्मा प्राचार्य थे लेकिन छात्रवृत्ति रिकार्ड में अशोक सिंह ने हस्ताक्षर किए है। इसी तरह वर्ष 2007-08 व 2008-09 में 1 ही नाम से बीए, बीकॉम, पीजीडीसीए और डीसीए कोर्स की 1 साल में 3 बार छात्रवृत्ति निकाली गई है और आश्चर्य का विषय है कि इस सारे मामले की शिकायत उच्च स्तर पर की गई है और बकायदा शिकायतकर्ता ने सूचना के अधिकार के तहत कॉपी निकालकर जांचकर्ताओं और मुख्यमंत्री तक को कॉपी दी है लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है पता तो यहां तक चला है कि ठाकुर होने का प्रभाव डालकर इस मामले को दबाने की कोशिश चल रही है।