शनिवार, 8 मई 2010

तेल लगाओ, विज्ञापन पाओ

संवाद में विज्ञापन देने नियम कानून नहीं
छत्तीसगढ़ संवाद में विज्ञापन जारी करने का कोई नियम कानून नहीं है। जो जितना चापलूती करेगा उसे उतना विज्ञापन जारी किया जाता है। चापलूसी के आगे प्रसार संख्या भी बेमानी है।
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के इस विभाग में भर्राशाही और अफसर शाही इस कदर हावी है कि कई अखबार वाले भी कुछ कहने-छापने से हिचकते हैं। इस संबंध में जब सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई तो यह जानकारी संवाद में चल रहे भर्राशाही का पोल खोलने के लिए काफी है।
संवाद ने 1 मई 2009 से 25 जुलाई 2009 से 25 जुलाई 2009 के बीच जो विज्ञापन जारी किए है दिल्ली से प्रकाशित होने वाले महामेघा को 50 हजार का विज्ञापन दिया गया। इसी तरह भिलाई से प्रकाशित अगास दिया को 80 हजार का विज्ञापन दिया गया। हरिभूमि और प्रखर समाचार को एक ही ग्रेट का बनाया गया और दोनों को तीन-तीन लाख का विज्ञापन दिया गया। सर्वाधिक विज्ञापन मुख्यमंत्री के गृह जिले राजनांदगांव के अखबारों को दिया गया जबकि दिल्ली के हिन्दी जगत को 50 हजार और इंदौर के ग्राम संस्कृति को 30 हजार का विज्ञापन दिया गया दिल्ली के ही नया ज्ञानोदय को 25 हजार लोकमाया हिन्दसत को 50-50 हजार का विज्ञापन दिया गया पटना के राष्ट्रीय प्रसंग को 75 हजार का विज्ञापन दिया गया।
इसके मुकाबले छत्तीसगढ़ के अखबारों को 5-10 हजार का विज्ञापन ही दिया गया। इस आंकड़े से स्पष्ट है कि जनसंपर्क और संवाद में किस तरह का भर्राशाही व चापलूसी चल रहा है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि इन विज्ञापनों की आड़ में कमीशनखोरी की चर्चा भी जोर-शोर से है।

शराब लॉबी का बढ़ता दबाव

राजधानी में इन दिनों शराब आंदोलन जोरों पर है नियम कानून को ताक पर रखकर शराब दुकानें खोली जा रही है। कई जगह इसके खिलाफ आंदोलन भी चल रहे हैं और अखबार भी इस आंदोलन को छाप रहे हैं लेकिन कई आंदोलनकारी के चहेरे की वजह से खबर को प्रमुखता नहीं दी जा रही है। यह सच है कि इसके पीछे शराब माफियाओं का दबाव।
दरअसल शराब माफियाओं की पकड़ इतनी मजबूत है कि वे सरकार बनाने-बिगाड़ने का दावा करते नहीं थकते इसलिए पुलिस भी नियम-कानून का उल्लंघन कर रही शराब दुकानों की तरफ से न केवल आंखे फेर लेती है बल्कि आंदोलनकारियों को ही कुचलने की कोशिश करती है। मांगे कितनी भी जायज हो व्यवस्था बनाने के नाम पर जिस तरह से आंदोलन कुचले जाते हैं कमोबेश कुछ अखबारों का रवैया भी यही है। इसलिए आंदोलनकारियों के चेहरे देख खबरें छापी जाने लगी है।
वैसे शराब माफियाओं ने अपने पैसे की ताकत अखबारों पर भी दिखाना शुरु कर दिया है यह अलग बात है कि रिपोर्टर अब भी आंदोलनकारियों के साथ है लेकिन विज्ञापन विभाग का दबाव खबरों को रोकने की ताकत रखने लगी है। इस खबर में कितना दम है यह तो अखबार वाले ही जाने लेकिन शराब आंदोलन की खबरों को लेकर माफियाओं द्वारा पैकेज पहुंचाने की चर्चा ने अखबार की विश्वसनियता पर सवाल उठाया है। प्रतिस्पर्धा के युग में अधिकाधिक विज्ञापन बटोरने की ललक ने खबरों के साथ समझौता भी सिखाने लगा है। अब तो यह चर्चा आम होने लगी है कि किस सिटी चीफ को उसके अखबार की औकात के अनुसार पैसा दिया जाने लगा है ताकि आंदोलन को कुचला जा सके।
और अंत में....
शराब दुकान को लेकर शास्त्री बाजार के व्यापारी प्रकोष्ठ दुखी है सरकार के अड़ियल रवैये से दुखी एक व्यापारी ने जब एक पत्रकार से खबर अच्छे से छापने की गुजारिश की तो इस पत्रकार का जवाब था पहले रिश्ता रखने वाले को अपने आंदोलन से बाहर करो फिर देखना हमारे यहां खबरें कैसे छपती है।