मंगलवार, 20 मार्च 2012

सरकारी नौटंकी बनता ग्राम सुराज


एक बार फिर रमन सरकार ने 18 अप्रैल से ग्राम सुराज अभियान चलाने की घोषणा कर दी है। सालों से चल रहे इस अभियान अब सिर्फ  एक नौटंकी और पिकनिक मनाने का जरिया बनता जा रहा है जहां चौपाल में बैठकर पूरी सरकार राजनैतिक फायदे की कोशिश में लगे रहती हैं। सरकारी धन का राजनैतिक फायदे के दुरूपयोग का यह एक अनोखा मामला है जिस पर हर साल लाखों-करोड़ों रुपये फूंके जाते हैं। डॉ. रमन सिंह ने शहर सुराज शुरू करने की भी घोषणा की थी लेकिन यह नहीं हो सका क्योंकि पढ़े-लिखे लोगों के बीच किसी भी तरह की राजनैतिक नौटंकी आसान नहीं है।
पिछले सालों के ग्राम सुराज की सफलता का सरकार कितना भी दावा कर ले लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं निकला है। ग्राम सुराज के नाम पर दो-चार दर्जन गांवों की समस्या सुनना, कुछ घोषणाएं करने के अलावा कभी दो-चार शासकीय कर्मियों पर निलंबन की तलवार लटकाने भर से व्यवस्था बदल चुकी होती तो दशक भर से ज्यादा चल रहे इस अभियान के नतीजे कुछ और ही होते।
ग्राम सुराज, सरकार की फिजूलखर्ची के सिवाय और कुछ नहीं है। ग्रामीणों की समस्या विधायक, मंत्री व कलेक्टर के माध्यम से सरकार तक पहुंच ही जाती है तब सरकार चाहे तो बगैर जाये कार्रवाई कर सकती है। ज्यादातर गांव वालों की मांगे भी पुरानी ही होती है जिसे भी पूरा किया जा सकता है। लेकिन तब करोड़ों रुपये फूंकने का खेल और उसमें कमीशनबाजी से मिलने वाली राशि का क्या होगा।
छत्तीसगढ़ में विधानसभा की 90 सीटों में से 50-51 पर भाजपा के लोग ही बैठे हैं वे क्या अपने क्षेत्रों की समस्याओं से रुबरू नहीं है, क्या वे लोग अपनी भूमिका का निर्वहन ठीक से नहीं कर रहे, तो फिर ग्राम सुराज की आवश्यकता क्यों है। क्या दो-चार दर्जन गांवों की समस्या हल कर देने से सब ठीक हो जायेगा? यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब सरकार के पास नहीं है।
दरअसल सरकार की मंशा ही कुछ और है। वरना सरकार को नहीं मालूम है कि किस गांव में पानी, बिजली और ईलाज की समस्या से गांव वाले जुझ रहे हैं या सरकार को पता नहीं है कि कौन से स्कूल का शिक्षक या पटवारी से गांव वाले परेशान है। क्या सरकार नहीं जानती कि किस थानेदार, कलेक्टर और एसपी के संरक्षण में अपराध फल-फूल रहा है। या वह यह नहीं जानती कि उसके कौन-कौन से अधिकारी व कर्मचारी दागी हैं जो जहां जायेंगे अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेंगे।
जब सरकार राजधानी जैसी जगह में बाबूलाल अग्रवाल, मनोज डे जैसे लोगों को गोद में बिठा कर रखी है तब भला वह ग्रामीण क्षेत्रों  में किस तरह से साफ सुधरे व ईमानदारों की पोष्टिंग करती होगी।
ग्राम से ज्यादा जरूरी शासकीय विभाग में सुराज कार्यक्रम  चलाने की जरूरत है ताकि भ्रष्ट लोग महत्वपूर्ण पदों पर न बैठ सके।

अधिकारियों की मनमानी से त्रस्त है पुलिस कर्मी


रायपुर। पुलिस मुख्यालय में पदोन्नति से लेकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग नहीं कराने को लेकर जबरदस्त लेनदेन का खेल चल रहा है। अधिकारियों की मनमानी के चलते सिपाही से लेकर निरीक्षक तक प्रताडि़त हैं और इसकी कोई सुनवाई भी नहीं होती। ऐसे में प्रताडऩा  के शिकार पुलिस कर्मियों से बेहतर उम्मीद करना बेमानी है।
आईपीएस राहुल शर्मा ने आत्महत्या के बाद वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा प्रताडि़त किये जाने की खबर को लेकर बिहिनिया संझा ने जब पुलिस मुख्यालय में दस्तक  दी तो वहां का हाल देखकर हम हैरान रह गये। गुटबाजी में बुरी तरह उलझी पुलिस अधिकारियों के पास अपनी कुर्सी बचाने के अलावा कोई काम ही नहीं रह गया है। एक दूसरे को निपटाने में लगे अधिकारियों की मनमानी से सिपाही तक अचरज में पड़ गए हैं और वे ऐसे किस्से हमें बताये जिसका प्रमाण जुटाना संभव नहीं होने की वजह से छाप पाना मुश्किल है। लेकिन यहां नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग नहीं करवाने  जमकर लेनदेन का खेल चलता है। सर्वाधिक दुखद स्थिति तो वरिष्ठता सूची बनाने की है जिसमें इतनी घपलेबाजी की जाती है कि इसके शिकार पुलिस कर्मियों की मानसिक स्थिति भी बिगड़ सकती है। ऐसा ही एक मामला सहायक उपनिरीक्षक से निरीक्षक बने रमेश कुमार निषाद का है। जानकारी के मुताबिक पुलिस मुख्यालय ने रमेश कुमार निषाद को एसटी कोटे से पदोन्नति देकर उपनिरीक्षक बना दिया। लेकिन नरेश कुमार ने इस पदोन्नति को यह कहकर लेने से मना कर दिया कि वह सामान्य श्रेणी का है इसलिए इसे सुधारा जाए। विभाग ने उसका नाम हटा तो दिया लेकिन किसी और का नाम नहीं जोड़े जाने से आरक्षण नियमों की न केवल अनदेखी हुई बल्कि पदोन्नति की लाईन में खड़े एसटी वर्ग के किसी एक सहायक उपनिरीक्षक का हक मारा गया।
बताया जाता है कि इस पदोन्नति सूची में कई लोगों के साथ ऐसा ही हुआ जिसकी वजह से वे प्रताडि़त हुए। अफसरों के सामने वे ज्यादा इसलिए भी नहीं बोल पाये कि उनका सीआर खराब न हो जाए।
अब रमेश को उसकी ईमानदारी की सजा मिलने लगी। जब उसने अपने को सामान्य बताकर एसटी कोटे के लिस्ट से नाम हटवाया तो नियमानुसार उसका प्रमोशन 2008 में होना था लेकिन 2008 की सूची जब निकली तो उसका नाम इसमें यह कहकर शामिल नहीं किया गया कि उसे 2006 में एसटी कोटे से पदोन्नति दे दी गई है जबकि रमेश ने 2006 में पदोन्नति नहीं ली थी।
बताया जाता है कि रमेश सहित तीन चार और लोगों के साथ यह घटना हुई थी और रमेश ने जब अपनी स्थिति अधिकारियों के सामने रखी तो उसकी बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। और साल भर चक्कर लगाने के बाद उसे 2009 में पदोन्नति दी गई।
ईमानदारी की इस सजा के चलते उसे 2008 से 2009 यानी पूरे एक साल मानसिक रूप से न केवल प्रताडि़त होना पड़ा बल्कि अपने साथियों से यह भी सूनना पड़ा की कि ले ईमानदारी की सजा भुगत।
अब सवाल यह है कि इस मानसिक प्रताडऩा की बात तो दूर पदोन्नति सूची में गड़बड़ी करने वालों पर कभी कार्रवाई नहीं हुई। वह लड़ाई लड़कर अपना हक पा लिया लेकिन कहा जाता है कि ऐसे कई लोग हैं जो विभागीय प्रताडऩा का शिकार है और गनीमत है कि इनमें से किसी ने राहुल शर्मा जैसा  कदम नहीं उठाया है वरना जब राहुल शर्मा के सुसाईडल नोट के बाद कार्रवाई  नहीं हो रही है तो इनका क्या होता?