शनिवार, 19 जनवरी 2013

आखिर इलेक्ट्रानिक वाले अलग हो ही गये ...


यह तो होना ही था । आखिर ग्लैमर से भरे इलेक्ट्रानिक मीडिया कब तक प्रिंट मीडिया के दबदबे पर चुप रहती । इलेक्ट्रानिक मीडिया इस बात पर लंबे समय से नाराज थे कि आजकल हर नेता - अधिकारी इलेक्ट्रानिक मीडिया के ग्लैमर के आगे नतमस्तक है तब भला प्रेस क्लब में पिं्रट मीडिया का दबदबा क्यों नहीं है ।
दरअसल प्रेस क्लब को प्रिंट मीडिा के वरिष्ठ पत्रकारों ने अपने खूब पसीना से सींचा है और सीनियरों की मेहहनत की वजह से ही रायपुर प्रेस क्लब का नाम सम्मान से लिया जाता है । ऐसे में प्रेस क्लब की गरिमा बनाये रखने की जिम्मेदारी भी कम नहीं है ।
ऐसा नहीं है कि प्रेस क्लब को तोडऩे की यह पहली कोशिश है पहले भी ऐसी कोशिश होते रही है लेकिन वरिष्ठों की प्रभावी भूमिका से तोडऩे का मसूंबा कभी पूरा नहीं हुआ ।
पुसदकर नेतागिरी की ओर
प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने पत्रकारिता छोड़ दिया है या नहीं यह तो तय नहीं है लेकिन इन दिनों बे फिरसे राजनीति करने लगे है और केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी के रायपुर का मीडिय़ा संभाल रहे हैं । यानी लड़ाई चालू आहे ।
सिमटती दूनिया-छिटकती खबरें...
कांकेर जिले के नइहरपुर ब्लॉक के आदिवासी कन्या आश्रम में हुई बलात्कार ने समूचे छत्तीसगढ़ को झकझोर कर रख दिया । घटना के विरोध में चप्पा-चप्पा बंद रहा । पर इतनी बड़ी खबर का नेशनल मीडिया में स्थान हैरान कर देने वाला है ।
नेशनल मीडिया की इस तरह की भूमिका को लेकर कमोबेश सभी राÓयों में जनमानस में नाराजगी है । काहे का नेशनल ! दिल्ली में बैठने भर से कोई नेशनल मीडिया बन जाता है ? ऐसे कितने ही आक्रोश के स्वर सुनाई पड़ते हैं ।
दरअसल संचार क्रांति के इस दौर में जैसे-जैसे दुनिया मोबाईल और इंटरनेट में सिमटती जा रही है । वैसे-वैसे खबरों की जानकारी बढ़ते जा रही है । ऐसे में समाचार पत्र या खबरिया चैनल की भूमिका भी बदली है । और व्यापार बाद हावी हुआ है । और जब व्यापार की सोच के साथ खबरें परोसी जाती है तब उन खबरों को ही प्राथमिकता दी जाती है जहां से विज्ञापन अधिक मिलते है या जहां प्रसार अधिक होता है ।
नेशनल ही नहीं राÓयों की राजधानी में बैठे मीडिया का भी यही रवैया है । खबरों की अधिकता और जगह की कमी की वजह के अलावा व्यापारिक फायदे ने कई बार खबरों के साथ अन्याय तो किया ही है पाठकों की सोच को भी बदला है । जब पूरे मामले का दारोमदार वे राÓय सरकार के ऊपर छोड़ते है तो खुद क्षमा क्यों मांगते हैं और अगर वे यह साफ करने की कोशिश करते हे कि उन्हौंने माननीय आधार पर क्षमा मांगा है तो क्या मानवीय आधार का क्षेत्रफल उनके क्षमा मांगने तक विस्तारित है, या सिमित है ? बात यह भी है कि अगर वे मान लेते है कि इस आरपी एफ कार्यवाही दौरान निर्दोष मारे गए है तो क्या देश गृहमंत्री के पद पर सुशोशित चिदंबरम द्वारा एक भी निर्दोष के मौत बाद केवल क्षमा मांग लेना भी उचित प्रतीत होता है ? देखा जाए तो अपने तरह का यह पहला मामला है जब किसी निर्दोष सोचना है कि काश इस मुद्धे पर चिदंबरम खामोश ही रहते तो कितना अ'छा होता, पर चिदंबरम भी क्या करें ना बोले तो क्यूं और अब बोल दिए तो क्यों ?
दरअसल उक्त विषय में जाग्रत पार्टी के लामबंदी बाद चिदंबरम ने कहा है कि अगर इसमें निर्दोष लोग मारे गए है तो वह इसके लिए मानवीय आधार पर क्षमा मांगते है ! उन्हौंने यह भी कहा है कि कानून व्यवस्था राÓय का विषय है यह भी कहते है कि इस पर अन्तिम फैसला लेने का हक सरकार का है सवाल यह है कि राÓयों की बड़ी खबरों को लेकर आम पाठकों का नेशनल मीडिया के प्रति जो सोच है । कमाबेश वही सोच राÓयों की राजधानी की मीडिया के प्रति ब्लाक या जिला के पाठकों का है ।
यही वजह है कि नेशलन मीडिया पर राÓयों की राजधानी की मीडिया के प्रति लोगों का आक्रोश बढ़ा है । हालांकि यह भी सच है कि कई बार बड़ी खबरों की जानबुझकर उपेक्षा की जाती है ।
और अंत में ...
सूचना के अधिकार के तहत जूटाये गए साक्ष्य पर जब एक पत्रकार ने खबर बनाने की सोची तो अखबार के संपादक ने अपने स्लोगन सुनाते हुए पत्रकार को ही फटकार लगा दी । यानी स्लोगन में मित्र यूं ही नहीं है ।